पंज-फुटी पिञिरन में पलंदा, घर दिठा सें।
प्या
उदनि उभ में शहर, बेपर दिठा सें।
काह
कातिनि जी जदहिं खाँ थी बननि ते
मोर
बन-बन जा कटायल-पर दिठा
सें।
हर
पहर दिसिजनि खुल्यल प्या माल-होटल
बंद
लेकिन सभु, दिलिन जा, दर दिठा
सें।
अन्न-जल
जा दे पई होका हुकूमत
ऐं
हरनि-खेतनि जा हक़, बंजर दिठा सें।
सचु
त आहे,
नारी
आ नारीय जी दुश्मन
पर
नज़र में तिनि जी दोही, नर दिठा सें।
दई-वठी दिल, गदु रहनि, तोड़िन पो रिश्ता
अहिड़ा अजुकल्ह दोस्त! सौदागर दिठा सें।
ख़ुदकुशी
प्या कनि खुशी खुद ही विञाए
‘कल्पना’ अहिड़ा बि कुछु कायर दिठा सें।
-कल्पना रामानी
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