रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Sunday, 18 September 2016

धरे धीरु बिगड़ी बणाए सघूँ था


 
धरे धीरु बिगड़ी, बणाए सघूँ प्या 
रुठल माइट्रनि खे मनाए सघूँ प्या  

रुनासीं उजाले जी ख़ातिरि उमिरि भरि
दियो छा न हिकिड़ो जलाए सघूँ प्या?

पढ़ी बारपण में पहाका अदब जा
बुढापे में आदरु पिराए सघूँ प्या  

गासीं शहर दे, मगर हक़ वसूले
शहरु गोठ खे पिणि बणाए सघूँ प्या  

परे थ्या पिरीं जे, सबबु कुछु त हूँदो
झुकी थोरो तिनि खे, मनाए सघूँ प्या  

दे कल्पनासिर्फ़ु आदत अड़ीअ जी
खुशीअ खे सदा गदु वसाए सघूँ प्या  

-कल्पना रामानी

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